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हर किसी को दरकार है शोहरत और दौलत की,
कमाया किस तरह जाए बहुतों को मालूम नहीं।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
रात सुकूँ है दिल को बेकरार न कर,
बिना सोचे किसी पर ऐतबार न कर।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
वक्त वो दोस्त है जो सिखाता रहा। हंसाता रहा और रुलाता रहा।
ठोकरें खाकर ही चलना सीखा है। वक्त ही नयी राह दिखाता रहा।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
उड़ा जाता है चांद, छोर मिलता नहीं।
खुशियों का चांद, अब खिलता नहीं।
चांद का रंग रूप, कुछ अलग ढ़ंग का।
अब चांदनी से चांद, कहीं मिलता नहीं।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
“परिवार का साथ खुशनसीबों को मिलता है,
जिसमें खु़शियों का सुंदर संसार पलता है।”
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
आसमान सिर पर उठाते हैं बच्चे, खेलते-कूदते और मुस्काते हैं बच्चे।
ये बच्चे भी मन के सच्चे होते हैं, सीखते और कुछ सिखाते हैं बच्चे।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
किसी को परेशान करना मेरी फ़ितरत नहीं,
मेरी कोशिश है किसी के कुछ काम आ सकूँ
अपनी ज़िंदगी तो सभी जीते हैं आराम से,
मन से किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सकूँ।
~ जितेंद्र मिश्र ‘बरसाने’
दिन कटता नहीं अब रात नहीं होती, तेरी मेरी कोई मुलाकात नहीं होती।
अब तो मन भी रेगिस्तान जैसा है, खुशियों की अब बरसात नहीं होती।
~ जितेंद्र मिश्र ‘बरसाने’
फूलों की तरह हमें सदा खिलना चाहिए,
प्रेमभाव से हमेशा हमें मिलना चाहिए।
ज़िंदगी तो चार दिन की जी भर जिएं,
निःस्वार्थ भाव से परमार्थ करना चाहिए।
~ जितेंद्र मिश्र ‘भरत जी’
गुलाब की तरह हो तुम मां! मेरे मन मंदिर में महकती हो।
ज़िंदगी का सार हो तुम मां! तुम्हीं दिल से मुझे समझती हो।
~ जितेंद्र मिश्र ‘बरसाने’