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नज़रें चुरा रहा हूँ मैं

तेरे चेहरे की चमक बेहिसाब,
दिन-रात इसे ही निहार रहा हूँ मैं…

तुझे खबर लगे देखने की तुझको,
इससे पहले ही नज़रें चुरा रहा हूँ मैं…

तेरे सामने दिल बदमाश बन जाता हैं बेवक्त,
इसे इंतज़ार की तस्सली देकर ही सुधार रहा हूँ मैं…

ये कैसी ख़ता तुझसे इश्क़ करने की,
इस ख़ता को खुद ही सबसे बता रहा हूँ मैं…

जिन्हें शक हैं हमारे रिश्ते को लेकर,
उन कमबख्तों का हर सवाल मिटा रहा हूँ मैं…

आसमां में देखा था मैंने कभी तुझे,
आज अपने संग जमीं पर उतार रहा हूँ मैं…

तेरे चेहरे की चमक बेहिसाब,
दिन-रात इसे ही निहार रहा हूँ मैं…

तुझे खबर लगे देखने की तुझको,
इससे पहले ही नज़रें चुरा रहा हूँ मैं…

 

~ Monu yadav

 

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यूँ तेरा मेरा साथ हो

यूँ तेरा मेरा साथ हो
बनारस का गंगा घाट हो
शाम के हसीन नज़ारे हो
चाँद भी साथ हमारे हो
प्रकृति की हवा सुहानी हो
पक्षियों की मधुर वाणी हो
तेरी मेरी अनकही कहानी हो
हाथों में निर्मल गंगा पानी हो
कुछ वादें तेरी जुबानी हो
कुछ कसमे मेरी जुबानी हो
घाटों पर रात का सन्नाटा हो
गंगा के लहरो की गूंज हो
वहाँ हम एक ज्योतिपुन्ज हो
ऐसी ही प्रेममयी हमारी कहानी हो
गंगा स्वयं साक्ष्य जिसकी निशानी हो

 

~ Pratiksha rai

 

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मेरी ख्वाइश कुछ ऐसी हो

मैं खुद ही खुद को बयां करती हूं, अजीब सी लड़की हूं जाने क्या-क्या ही चाहती हूं,
छोटी – छोटी आंखों में सपने हजार देख के मुसाफिर बनना चाहती हूं,

है रस्ते अनजान फिर भी बेफ्रिक होकर मंजिल ढूंढना चाहती हूं
खोने का डर नहीं बस सपने पूरा करना चाहतीं हूं

दे साथ गर कोई जिंदगीभर शुक्रगुजार होना चाहती हूं
यूंह तो ख्वाइशें हर दिन बदलती रहती हैं

पर मेरी ख्वाइश कुछ ऐसी हो की बस उसी में खोकर रहना चाहती हूं…
मैं खुद को बस खुद ही से बयान करना चाहती हूं।

~ Dr.Ruchika Mehta

 

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यह लॉकडाउन नहीं जीवन रक्षक मंत्र है

लॉकडाउन यह लॉकडाउन नहीं जीवन रक्षक मंत्र है
जिससे बचना है हमें उसका नाम कोरोना षड्यंत्र है|

जिसने इसे बनाया वह तो है अपनी मस्ती में
अब यह फैल रहा हम लोगों की बस्ती में|

यह ना देखे जात पात ना ही देखे कोई धर्म
यह तो अपने चक्कर में सब को लपेटे चाहे राजा हो या रंक|

फैले ना ये सब जगह इसलिए इस्तेमाल करे सैनिटाइज व मास्क
इन दोनों को देखकर ही कोरोना दूर से ही जाता भाग|

ना हाथ मिलाये ना गले मिले बस कुछ दिन की तो बात
एक बार सब ठीक हो जाए फिर मिलते रहिए दिन रात|

आओ हम सब मिलकर ये पहल करें
दूर दार रहकर ही चहल करें|

यह लॉकडाउन नहीं जीवन रक्षक मंत्र है
जिससे बचना है हमे उसका नाम कोरोना षड्यंत्र है|

 

~ माही गुप्ता

 

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मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

चलती हुयी राह से गुमराह हो गया था
ज़िन्दगी को लेकर बेपरवाह हो गया था

मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

नींद से मेरा नाता टूट सा गया था
भूख प्यास से भी ये मन रूठ सा गया था

मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

अकेलेपन से मानो प्यार हो गया था
एक सच्ची ख़ुशी के लिए दिल लाचार हो गया था

मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

अपनों के बिच में अनजान हो गया था
बिना वजह आँखों में आंसू लाना बड़ा आसान हो गया था

मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

आत्मविश्वास तोह मानों,.. जैसे खो गया था
आँखें तो खुली थी, मगर आत्मा कबका सो गया था

मैं अक्सर खुद से पूछता हूँ “मुझे क्या हो गया था”?

 

~ शैलजा

 

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जाने वाले क्या कभी लौट कर भी आते हैं

जाने वाले क्या कभी लौट कर भी आते हैं
छोड़ गए थे जिसे क्या उसे वापस अपना बनाते हैं

जाने का मन तो वो बहुत पहले बनाते हैं
फिर क्यों किसी को बताकर नहीं जाते हैं

अपने ही घर से ये चोरों जैसा निकलना
भला उन्हें क्यों मुनासिब लगता है,
समझते क्यों नहीं यूं घर की लानतें भी साथ ले जाते हैं…
जाने से पहले वे मोहब्बत की जंजीर तोड़ क्यों नहीं देते हैं

नहीं दे सकते जो मोहब्बत का दाना पानी
तो प्रेम के पिंजड़े खोल क्यों नहीं देते हैं

अपनी शोहबत में जिसे करते थे रोशन
उसे जंगल के अंधेरे में अकेला छोड़ क्यों देते हैं…

क्यों अपना इंतजार मुल्तवी करके जाते हैं
लौट कर नहीं आना है ये सीधे क्यों नहीं बतलाते हैं

जब कर ही चुके होते हैं किसी और से दिलदारी गुफ्तगू
तब भी क्यों रखते हैं पहले सी जारी…
जो साथ निभाना नहीं आता तो क्यों झूठे कसमें वादे खाते हैं

अपनी आंखों से मासूम दिल पर खंजर क्योंकर चलाते हैं…
जाने से पहले वे अपने हुस्न को जो इतना सजाते हैं
अपने दिल का आईना क्यों नहीं चमकाते हैं…

घर के सारे साजो सामान जब अपने साथ ले जाते हैं
ले जाते हैं घर की रोशनी, हवा, खुशियां सारी
तो अपनी यादों को क्यों छोड़ जाते हैं

अपनी खुशबू को कोनों में बिखराकर उसे क्यों नहीं समेट जाते हैं…
अपनी जुदाई पर जो जीते जी मौत से अजीज कर देते हैं
पेट में छुरा भोंककर क्यों नहीं जाते हैं….

ये जाने वाले भी भला कहाँ लौटकर आते हैं
अपने तबस्सुम से महकाया था जिसे कभी
उसे लौटकर फिर गले लगाना तो दूर की बात
उसकी मौत पर दुआ करने भी वापस नहीं आते हैं

जाने वाले क्या कभी लौट कर भी आते हैं
छोड़ गए थे जिसे क्या उसे वापस अपना बनाते हैं

 

~ Nupoor Kumari

 

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पापा मैं आप से कुछ कहना चाहती हूँ

Emotional Poem Papa ke liye From beti

 

पापा मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ।
पापा मैं आपके साथ बैठना चाहती हूँ.

आपसे बहुत कुछ कहना चाहती हूँ..
अपने दर्द बयाँ कर रोना चाहती हूँ।

पापा मैं आपसे सब सीखना चाहती हूँ
जब भी दिल घबराता है..
आप को ही याद करती हूँ..

‘BE STRONG ‘पापा है ना
ये ख्याल आते ही शांत हो जाती हूँ।

न आप की बात बुरी लगती है
न मैं आपसे लड़ना चाहती हूँ।

पापा मैं आप से एक बात कहना चाहती हूँ।
मैं कई बार अकेली सी पड़ जाती हूँ..

मैं आप को आवाज़ लगाना चाहती हूँ।
पापा मैं आप को बहुत चाहती हूँ

हाँ, मैं कभी नही बताती..
मगर मैं आप के जैसा बनना चाहती हूँ।

पापा मैं आप से कुछ कहना चाहती हूँ….!

 

~ Anushthi Singh

 

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देश की बेटी हूँ, मुझे अब बस न्याय चाहिए

जैसा की हम सभी को पता हैं, हाथरस वाले केस में जो भी हुआ वो मानवता की, इंसानियत की हत्या है| इस देश में एक बेटी, एक औरत के लिए रहना कितना मुश्किल होने लगा है| अगर हम आज भी आवाज़ नहीं उठा पाएंगे या अपने आप के अंदर बसे हैवान को नहीं मार पाएंगे तो कल को ये हादसा किसी अपने के साथ भी हो सकता है, इसलिए हम सभी को इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए, और इस तरह हो रहे अंन्याय पर न्याय की मांग करनी होगी |
हाथरस वाली बेटी, या देश में जितने भी ये घिनोने काम हुए है और हो रहे है, उन सभी बेटी की आत्मा, उनका मन, उनकी रूह सिर्फ और सिर्फ यही कह रहा होगा जो हम इस कविता में प्रस्तुत कर रहे है, इसे जरूर पड़े और लोगो से जरूर शेयर करे ताकि हम इस कविता के द्वारा ज्यादा से ज्यादा लोगो को समझा पाए की एक औरत की राह कितनी मुश्किल है, जहाँ एक तरह बेटियों को बेटो की बराबर जगह देने की बात होती हैं और दूसरी और ये दरिंदगी |

 

न्याय की मांग में एक बेटी पर कविता

Justice for Manisha Desh ki Beti Kavita

 

बचपन से ही लोगो ने समझाया …
पापा की इज्जत हूं,
बचा के रखना हर किसी ने बतलाया ,
हर शौक को खत्म कर मैंने,
सूट और 2 मीटर का दुप्पटे को अपनाया ,
बचपन से ही लोगो ने समझाया….

मां ने बोला दुपट्टा फैला के रखना ,
लड़के कुछ भी बोले,
लेकिन तुम कभी कुछ ना कहना ,
क्योंकि तुम बेटी हो,
तुम्हे तो ज़िन्दगी भर है सहना ,

बचपन से ही हर किसी का था यही कहना,,
बेटी हो बच के रहना ।
मैंने मां की बातो को ज़िन्दगी में उतार लिया ,
बड़ी सी कमीज़,
और तन को ढकने का पायजामा सिला लिया ,
देर रात तक बाहर ना रहना,
पापा की इज्जत हो ,
इन सब बातो को,
हर किसी ने मेरे सुबह का नाश्ता बना दिया ,
चाय में शक्कर के साथ इन बातो को भी मिला दिया ।।

एक दिन बाहर गई ….
फैलाकर दुपट्टा, बालों की सीधी चोटी,
क्योंकि मा ने बोला था
jeans, top, hairstyles ऐसी लडकिया safe नहीं होती ,
आगे बढी तो एहसास हुआ …
कोई मेरे पीछे हैं, मन घबराया, दिल जोर से चिल्लाया ,
लेकिन माँ की बाते याद आ गयी ,,,,
सूट, सलवार, सीधी चोटी,..और मैं लड़की ……
मुझे चिल्लाने का तो हक ही नहीं था ,
मेरे कदम रुक से गए थे..
मेरी साँस थम् सी गई थी,

बस उस वक्त पापा की इज्जत सामने आ खड़ी थी।।
ना रात थी , ना jeans था ….
यूँ दबोच मुझें नीचे गिराया , चिल्लाती भी तो कैसे??
माँ ने कभी चिल्लाना नहीं सिखाया ,
रुयी चिल्लायी कोई सुनने वाला नहीं था ,
मेरे जिस्म की नुमाईश, कोई ढकने वाला नहीं था ।।

लड़ी उस दम तक, जब तक पापा की इज्जत बचा सकती थी,
रोई गिड़गिड़ायी जब जब माँ की बाते याद आती थी,
हैवानियत जब हद से पार हो गई,
उस वक़्त मैं खुद से भी हार गई।।
जीना चाहती थी, बोलना चाहती थी,
अपने माँ के अंगना फिर से खेलना चाहती थी।।
बोलूँ भी तो किससे?? कौन मेरी बाते सुनेगा?
जीभ कटी मेरी, कौन मेरी आवाज़ बनेगा????

हड्डी तोड़े, पैर तोड़े इस दरिन्दगी को दुनिया से कौन कहेगा??
मेरे चरित्र पर अब उठे सवालो पर, अब कौन लड़ेगा??
फ़िर भी मैं लड़ना चाहती थी, इन दरिंदो से।।
लेकिन अब मैं अकेली हो गई थी आखे बंद कर,
न्याय की उम्मीद लिये मैं हमेशा के लिए सो गई थी।।।
लेकिन माँ से बहोत सारे सवाल अधूरे रह गए,
Jeans, top, सूट सलवार, रात दिन ??
माँ इनमे से अब क्या चुने ????

ना मुझे Candle March चाहिए,
ना ही Poster March चाहिए।।।
मैं भी इस देश की बेटी हु,
मुझे अब बस न्याय चाहिए …….

 

~ Shikha upadhyay

 

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एक इंसान

इंसानो का इंसानो से इंसानियत का वास्ता ही कुछ और है,
हर एक इंसान का इस दुनिया में रास्ता ही कुछ और है,

मूर्खो से मूर्खो की बाते मूर्खो को समझ न आयी
एक मुर्ख खुसिया के बोला क्या तू समझा मेरे भाई?

अन्धो से अन्धो का तो अजीब ही नाता है,
हर अँधा दूसरे अंधे के नैनो की गहराही में खो जाता है !

ऐसे इस घमासान में बेहरे भी कुछ कम नहीं इतराते ,
समझे सुने मुमकिन नहीं पर गर्दन जरूर हिलाते।

गूंगे न जाने शब्दों से रिश्ता कैसे निभाते है,
केवल होठों को मिटमिट्याते हुए कैसे वे बतियाते है?

कर से अपंग भी लालसा में झूल जाते है,
हाय रे ये आलसी जानवर बिस्तर न छोड़ पाते है!

सयाने इतराते कहते लंगड़े घोड़े पर डाव नहीं लगाते,
और दूसरे ही मौके पर दुसरो के तरक्की में रोड़ा अडकते।

किस्मत के मारो का तो क्या कहना, ये दिमाग से पैदल होते है,
सामर्थ्यवान इस देश की उपज है मानो सारा कुछ यही सहते है।

इससे तो अच्छा सचमें इनके आँख, कान, जबान, पैर और हाथ न होते,
दिमाग तो फिर भी ठीक था पर दिल को मन में संजोते,

ऐसे इस इंसान का फिर भी जग में उद्धार जरूर होता,
इंसान फिर इंसानियत से कभी वास्ता न खोता।

 

~ Aashish Jain

 

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